श्रीमद भगवत गीता भाषा अध्याय २ | Shrimad Bhagwat Geeta Bhasha Adhyay 2
Shrimad Bhagwat Geeta Bhasha Adhyay 2 Hindi
श्रीमद भगवत गीता हिंदू धर्म का एक परम पवित्र ग्रंथ है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए दिव्य उपदेश समाहित हैं। अध्याय 2 को “सांख्य योग” कहा जाता है, जो गीता का अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय है। इसमें जीवन, आत्मा, कर्म, और मृत्यु के रहस्यों को विस्तार से समझाया गया है।द्वितीय अध्याय- सांख्य योग
* संजय बोला कि, पूर्वोक्त प्रकार से करुणा करके व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान् मधुसूदन ने यह वचन कहा||१||
* हे अर्जुन ! तुमको इस विषम स्थल में यह अज्ञान किस हेतु से प्राप्त हुआ ? क्योंकि यह न तो श्रेष्ठ पुरुषों से आचरण किया गया है, न स्वर्ग को देने वाला है, न कीर्ति को करने वाला है||२||
* इसलिये हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, यह तेरे योग्य नहीं है, हे परंतप ! तुच्छ हृदय की दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो||३||
* तब अर्जुन बोला कि हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के प्रति किस प्रकार सुबाणों करके युद्ध करूँगा, क्योंकि हे अरिसूदन ! वे दोनों हो पूजनीय हैं||४||
* इसलिये इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर इस लोक में भिक्षा का अन्न भी भोगना कल्याण कारक समझता हूँ, क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को हो तो भोगूँगा||५||
* और हम लोग यह भी नहीं जानते कि हमारे लिये क्या करना श्रेष्ठ है अथवा यह भी नहीं जानते कि हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़े हैं||६||
* इसलिये कायरता रूप दोष करके उपहत हुए स्वभाववाला और धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं, आपको पूछता हूँ; जो कुछ निश्चय किया हुआ कल्याण कारक साधन हो, वह मेरे लिये कहिये, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए मेरे को शिक्षा दीजिए||७||
* क्योंकि भूमि में निष्कण्टक धन धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामी पने को प्राप्त होकर भी, मैं
उस उपाय को नहीं देखता हूँ जो कि मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके||८||
* संजय बोला, हे राजन् ! निद्रा को जीतने वाला अर्जुन अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्री गोविन्द भगवान् को युद्ध नहीं करूंगा ऐसे स्पष्ट कहकर चुप हो गया||९||
* उसके उपरान्त हे भरत वंशी धृतराष्ट्र ! अन्तर्यामी श्री कृष्ण महाराज ने दोनों सेनाओं के बीच में उस शोक युक्त अर्जन को हँसते हुए-से यह वचन कहा||१०||
* हे अर्जुन ! तूं न शोक करने योग्यों के लिये शोक करता है और पण्डितों केसे वचनों को कहता है परंतु पण्डित जन जिनके प्राण चले गये हैं उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं उनके लिये भी शोक नहीं करते हैं||११||
* क्योंकि आत्मा नित्य है। इसलिये शोक करना अयुक्त है। वास्तव में न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा नहीं था अथवा यह राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे||१२||
* किन् जैसे जीवात्मा की इस दह में कुमार, युवा और वृद्ध अवस्था होती है वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होता
है, उस विषय में धीर पुरुष नहीं मोहित होता है। अर्थात जैसे कुमार, युवा और जरा अवस्था रूप स्थूल शरीर का विकार अज्ञान से आत्मा में भासता है वैसे ही एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त होना रूप सूक्ष्म शरीर का विकार भी अज्ञान से ही आत्मा में भासता है, इसलिये तत्त्व को जानने वाला धीर पुरुष इस विषय में नहीं मोहित होता है||१३||
* हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो क्षण भंगुर और अनित्य हैं इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन ! उनको तूं सहन कर||१४||
* क्योंकि हे पुरुष श्रेष्ठ ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को यह इन्द्रियों के विषय व्याकुल नहीं कर सकते वह मोक्ष के लिये योग्य होता है||१५||
* और हे अर्जुन ! असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत् का अभाव नहीं है, इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है||१६||
* इस न्याय के अनुसार नाश रहित तो उसको जान कि, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है, क्योंकि इस अविनाशी का विनाश करने को कोई भी समर्थ नहीं है||१७||
* और इस नाश रहित अप्रमेय नित्य स्वरूप जीवात्मा के यह सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं, इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन ! तँ युद्ध कर||१८||
* जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है, वह जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते है, क्योंकि यह आत्मा न मारता है और न मरता है ||१९||
* यह आत्मा किसी काल में भी जन्मता है और न मरता है; अथवा न यह आत्मा हो करके फिर होने वाला है; क्योंकि यह अजन्मा नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी यह नाश नहीं होता है||२०||
* हे पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्मा को नाश रहित, नित्य के अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे
किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है||२१||
* और यदि तूं कहे कि मैं तो शरीरोग का वियोग का शोक करता हूँ तो यह भी उचित नहीं है, क्योंकि जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है||२२||
* हे अर्जुन ! इस आत्मा को शस्त्रादि नहीं काट सकते हैं और इसको आग नहीं जला सकती है तथा इसको जल नहीं गीला कर सकते हैं और वायु नहीं सुखा सकता है||२३||
* क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य है तथा यह आत्मा निःसन्देह नित्य, सर्वव्यापक, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है||२४||
* यह आत्मा अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियों का अविषय और यह आत्मा अचिन्त्य अर्थात् मन का अविषय और यह आत्मा विकार-रहित अर्थात् न बदलने वाला कहा गया है, इससे हे अर्जुन ! इस आत्मा को ऐसा जानकर तू शोक करने को योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है||२५||
* यदि तू इसको सदा जन्म ने और सदा मरने-वाला माने तो भी, हे अर्जुन ! इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है||२६||
* क्योंकि ऐसा होने से तो जन्मने वाले की निश्चित मृत्यु और मरने वाले का निश्चित जन्म होना सिद्ध हुआ, इससे भी तूं इस बिना उपाय वाले विषय में शोक करने को योग्य नहीं है||२७||
* यह भीष्मादिकों के शरीर माया मय होने से अनित्य हैं, इससे शरीरों के लिये भी शोक करना उचित नहीं, क्योंकि हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहिले बिना शरीर वाले और मरने के बाद भी बिना शरीर वाले और मरने के बाद भी बिना शरीर वाले ही हैं, केवल बीच में ही शरीर वाले प्रतीत होते हैं, फिर उस विषय में क्या चिन्ता है||२८||
* हे अर्जुन ! यह आत्म तत्त्व बड़ा गहन है, इसलिये कोई महा पुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य को ज्यों देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष हो आश्चर्य को ज्यों इसके तत्त्व को कहता है और दूसरा कोई हो इस आत्मा को आश्चर्य को ज्यों सुनता है और कोई-कोई सुनकर भी इस आत्मा को नहीं जानता||२९||
* हे अर्जुन ! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है इसलिये सम्पूर्ण भूत प्राणियों के लिये तू शोक करने को योग्य नहीं है||३०||
* और अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने को योग्य नहीं है, क्योंकि धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याण कारक कर्तव्य क्षत्रिय के लिये नहीं है||३१||
* हे पार्थ ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान् क्षत्रिय लोग ही पाते हैं||३२||
* और यदि तू इस धर्मयुक्त संग्राम को नहीं करेगा तो स्वधर्म को और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा||३३||
* जिसका बध नहीं किया जा सके । और सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति को भी कथन करेंगे और वह अपकीति माननीय पुरुष के लिये मरण से भी अधिक बुरी होती है||३४||
* और जिनके तूं बहुत माननीय होकर भी अब तुच्छता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से उपराम हुआ मानेंगे||३५||
*और तेरे बैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए बहुत से न कहने योग्य वचनों को कहेंगे, फिर उससे अधिक दुःख क्या होगा ?||३६||
* इससे युद्ध करना तेरे लिये सब प्रकार से अच्छा है, क्योंकि या तो मरकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा जीतकर पृथ्वी को भोगेगा, इससे हे अर्जुन ! युद्धके लिये निश्चय वाला होकर खड़ा हो||३७||
* यदि तुझे स्वर्ग तथा राज्य की इच्छा न हो तो भी सुख-दुःख, लाभ-हानि और जय-पराजय को समान समझ कर उसके उपरान्त युद्धके लिये तैयार हो, इस प्रकार युद्ध करने से तूं पाप को नहीं प्राप्त होगा||३८||
* हे पार्थ ! यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञान योग के विषय में कही गई और इसी को अब निष्काम-कर्म-योग को विषय में सुन, कि जिस बुद्धि से युक्त हुआ तूं कर्मों के बन्धन को अच्छी तरह से नाश करेगा||३९||
* इस निष्काम कर्म योग में आरम्भ का अर्थात् बीज का नाश नहीं है और उल्टा फलरूप दोष भी नहीं होता है इसलिये इस निष्काम कर्म-योग रूप धर्म का थोड़ा भी साधन जन्म-मृत्यु-रूप महान् भय से उद्धार कर देता है||४०||
* हे अर्जुन ! इस कल्याण मार्ग में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही है और अज्ञानी (सकामी) पुरुषों की बुद्धियाँ बहुत भेदोंवाली अनन्त होती हैं||४१||
* हे अर्जुन ! जो सकामी पुरुष केवल फल श्रुति में प्रीति रखने वाले, स्वर्ग को ही परम श्रेष्ठ मानने वाले इससे बढ़कर
और कुछ नहीं है ऐसे कहनेवाले हैं, वे अविवेकी-जन जन्मरूप कर्म फल को देने वाली और भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये बहुत-सी क्रियाओं के विस्तार वाली, इस प्रकार की जिस दिखाऊ शोभा-युक्त वाणी को कहते हैं||४२-४३||
* उस वाणी द्वारा चाहिये, हरे हुए चित्त वाले, तथा भोग और ऐश्वर्य में,आसक्ति वाले, उन पुरुषों के अन्तःकरण में निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती है||४४||
* हे अर्जुन ! सब वेद तीनों गुणों के कार्यरूप संसार को विषय करने वाले अर्थात् प्रकाश करने वाले हैं, इसलिये तूं असंसारी अर्थात् निष्कामी और सुख-दुःखादि द्वन्द्वों से रहित, नित्य वस्तु में स्थित तथा योग क्षेम को न चाहने, बाला और आत्मपरायण हो||४५||
* क्योंकि मनुष्य का सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त होने पर छोटे जलाशय में जितना प्रयोजन रहता है, अच्छी प्रकार ब्रह्म को जानने वाले ब्राह्मण का भी सब वेदोंमें उतना ही प्रयोजन रहता है, अर्थात् जैसे बड़े
जलाशय के प्राप्त हो जाने पर जल के लिये छोटे जलाशयों की आवश्यकता नहीं रहती, वैसे ही ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होने पर आनन्द के लिये वेदों की आवश्यकता नहीं रहती||४६||
* इससे तेरा कर्म करने मात्त्र में हो अधिकार होवे, फल में कभी नहीं और तूं कर्मों के फल की वासनावाला भी मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें प्रीति न होवे||४७||
* हे धनंजय ! आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित होकर योग नाम से हुआ कर्मों को कर, यह समत्व भाव हो||४८||
* इस समत्व रूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त तुच्छ है, इसलिये हे धनंजय ! समत्व-बुद्धियोग का आश्रय ग्रहण कर, क्योंकि फल की वासना वाले अत्यन्त दीन हैं||४९||
* समत्व-बुद्धि युक्त पुरुष पुण्य, पाप दोनों को इस लोक में हो त्याग देता है अर्थात् उनसे लिपायमान नहीं होता, इससे समत्व-बुद्धियोग के लिये ही चेष्टा कर, यह समत्व-बुद्धि रूप योग हो कर्मों में चतुरता है अर्थात्
कर्मबन्धन से छूटने का उपाय है||५०||
* क्योंकि बुद्धियोग युक्त ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्म रूप बन्धन से छूटे हुए निर्दोष
अर्थात् अमृतमय परम पद को प्राप्त होते हैं||५१||
* हे अर्जुन ! जिस काल में तेरी बुद्धि मोह रूप दलदल- को बिल्कुल तर जायगी तब तूं सुनने योग्य और सुने हुए के वैराग्य को प्राप्त होगा||५२||
* जब तेरी अनेक प्रकार के सिद्धान्तों को सुनने से विचलित हुई - बुद्धि परमात्मा के स्वरूप में अचल और स्थिर ठहर जायगी तब तूं समत्व रूप योग को प्राप्त होगा||५३||
*इस प्रकार भगवान् के वचनों को सुन कर अर्जुन ने पूछा हे केशव ! समाधि में स्थित स्थिर बुद्धि वाले पुरुष का क्या लक्षण है ? और स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है ? कैसे बैठता है ? कैसे चलता है ?||५४||
* उसके उपरान्त श्री कृष्ण महाराज बोले, हे अर्जुन ! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को त्याग देता है, उस काल में आत्मा से ही आत्मा में संतुष्ट हुआ स्थिर बुद्धि वाला कहा जाता है||५५||
* तथा दुःखों की प्राप्तिम उद्वेग रहित है मन जिसका और सुखों की प्राप्ति में दूर हो गई है स्पृहा जिसकी तथा नष्ट हो गये हैं राग, भय और क्रोध जिसके ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है||५६||
* जो पुरुष सर्वत्र स्नेह रहित हुआ, उन-उन शुभ तथा अशुभ वस्तुओं को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है||५७||
* और कछुआ अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही यह पुरुष जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से समेट लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है||५८||
* यद्यपि इन्द्रियों के द्वारा विषयों को न ग्रहण करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परंतु राग
नहीं निवृत्त होता और इस पुरुषका तो राग भी परमात्मा को साक्षात् करके निवृत्त हो जाता है||५९||
* और हे अर्जुन ! जिससे कि यत्न करते कि हुए बुद्धिमान् पुरुष के भी मन को यह प्रमथन-स्वभाव वाली इन्द्रियाँ बलात्कार से हर लेती हैं||६०||
* इसलिये मनुष्य को चाहिये कि उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित-चित्त हुआ मेरे परायण
स्थित होवे; क्योंकि जिस पुरुषके इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसकी ही बुद्धि स्थिर होती है||६१||
* हे अर्जुन ! मन सहित इन्द्रियोंको वश में करके मेरे परायण न होने से मन के द्वारा विषयों का चिन्तन होता है और विषयों को चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है और आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है||६२||
* क्रोध से अविवेक अर्थात् मूढ़भाव उत्पन्न होता है और अविवेकसे स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है और स्मृति के भ्रमित हो जानेसे बुद्धि अर्थात् ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि के नाश होनेसे यह पुरुष अपने श्रेय साधन से गिर जाता है||६३||
* परंतु स्वाधीन अन्तःकरण वाला पुरुष राग-द्वेष से रहित अपने वश में की हुई इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता अर्थात् स्वच्छता को प्राप्त होता है||६४||
* उस निर्म-लता के होने पर इसके संपूर्ण दुःखोंका अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्त वाले पुरुष को बुद्धि शीघ्र ही अच्छी प्रकार स्थिर हो जाती है||६५||
* हे अर्जुन ! साधन रहित पुरुष के अन्तःकरण में श्रेष्ठ बुद्धि नहीं होती है और उस अयुक्त के अन्तःकरण में आस्तिकभाव भी नहीं होता है और बिना आस्तिक भाव वाले पुरुष को शान्ति भी नहीं होती; फिर शान्ति रहित पुरुष को सुख कैसे हो सकता है?||६६||
* क्योंकि जल में वायु नाव को जैसे हर लेता है वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के बीच में जिस इन्द्रिय के साथ मन रहता है, वह एक ही इन्द्रिय अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हरण कर लेती है||६७||
* इससे हे महा बाहो ! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ सह प्रकार के इन्द्रियों के विषयों से वश में की हुई होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर होती है||६८||
* और अर्जुन ! संपूर्ण भूत प्राणियों के लिये जो रात्रि उस नित्य-शुद्ध बोध स्वरूप परमानन्द में भगवत्वा प्राप्त हुआ योगी पुरुष जागता है और जिस नाशवान् क्षणभंगुर सांसारिक सुख में सब भूतप्राणी जागते हैं, तत्त्व को जानने वाले मुनि के लिये वह रात्रि है||६९||
* जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र के प्रति नाना नदियों के जल उसको चलायमान न करते हुए ही समा जाते है वैसे ही जिस स्थिर बुद्धि पुरुष के प्रति संपूर्ण भी किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही सम जाते हैं, वह पुरुष परम शान्तिको प्राप्त होता है न कि भोगों को चाहने वाला||७०||
* क्योंकि जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर, ममता रहित और अहकार रहित स्पृहा रहित हुआ बर्तता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है||७१||
* हे अर्जुन ! यह ब्रह्मण प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर मोहित नहीं होता है और अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है||७२||
*इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवाद में
"सांख्ययोग" नामक दूसरा अध्याय *