श्रीमद भगवत गीता भाषा अध्याय ६ | Shrimad Bhagwat Geeta Bhasha Adhyay 6

Shrimad Bhagwat Geeta Bhasha Adhyay 6 Hindi

श्रीमद भगवत गीता सनातन धर्म का सबसे पवित्र और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह ग्रंथ महाभारत के भीष्म पर्व में वर्णित है और इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध भूमि में जो दिव्य उपदेश दिए, वही "भगवत गीता" कहलाता है। श्रीमद भगवत गीता अध्याय 1 को "आत्म संयम योग" कहा जाता है।

Shrimad Bhagwat Geeta Bhasha Adhyay 6

षष्टम अध्याय- आत्म संयम योग

श्री परमात्मने नमः

* उसके उपरान्त श्री कृष्ण महाराज बोले, हे अर्जुन ! जो पुरुष कर्म के फल को न चाहता हुआ करने योग्य कर्म करता है वह संन्यासी और योगी है और केवल अग्नि को त्यागने वाला संन्यासी योगी नहीं है, तथा केवल क्रियाओं को त्यागने वाला भी संन्यासी योगी नहीं है||१||

* इसलिये हे अर्जुन ! जिसको संन्यास ऐसा कहते हैं उसी को तू योग जान, क्योंकि संकल्पों को न त्यागने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता||२||

* समत्व-बुद्धि रूप योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मनन शील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष के लिये सर्व संकल्पों का अभाव ही कल्याण में हेतु कहा है||३||

* जिस काल में न तो इन्द्रियोग भोगों में आसक्त होता है तथा न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सर्व संकल्पों का त्यागी पुरुषयोगारूढ़ कहा जाता है||४||

* यह योगारूढ़ता कल्याण में हेतु कही है, इसलिये मनुष्य को चाहिये कि अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करे और अपने आत्मा को अधोगति में न पहुँचावे, क्योंकि यह जीवात्मा आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्र है अर्थात् और कोई दूसरा शत्रु या मित्र नहीं है||५||

* उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है, कि जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है और
जिसके द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है उसका वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है||6||

* हे अर्जुन ! सर्दी, गर्मी और मुख, दुःखादि कों में तथा मान और अपमान में,
जिसके अन्तःकरण को वृत्तियाँ अच्छी प्रकार शान्त है, अर्थात् विकार रहित हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मा-वाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानन्दधन परमात्मा सम्यक् प्रकार से स्थित है, अर्थातू उसके ज्ञान में पर-मात्मा के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं||7||

* ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है अन्तःकरण जिसका तथा विकार-रहित है स्थिति जिसकी और अच्छी प्रकार जीती हुई हैं इन्द्रियाँ जिसकी तथा समान हैं मिट्टी, पत्थर और सवर्ण जिसके, वह योगी युक्त अर्थात् भगवत्-की प्राप्ति वाला है. ऐस कहा जाता है||8||

* जो पुरुष सुहृद, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ द्वेषी और बन्धुगणो में तथा धर्मात्माओं में और पापिक में भी, समान भाव वाला है वह अति श्रेष्ठ है||९||

* इसलिये उचित है कि जिसका मन और इन्द्रिय सहित शरीर जीता हुआ है, ऐसा वासना और संग्रह रहित योगी अकेला हो एकान्त स्थान स्थित हुआ निरन्तर आत्मा को परमेश्वर के ध्यान लगावे||१०||

* शुद्ध भूमि में कुशा, मृग छाला और वस्त्र उपरोपरि जिसके ऐसे अपने आसन को न अति ऊर और न अति नीचा स्थिर स्थापना करके||११||

* जो उस आसन पर बैठकर तथा मन को एकाग्र कर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वशमें किया हो, अन्तःकरण की शुद्धि के लिये योग का अभ्यासक||१२||

* उसकी विधि इस प्रकार है कि काया, शिर और ग्रीवा को समान और अचल धारण किये दृढ़ होकर अपने नासिका के अग्रभाग को देखकर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ||१३||

* और ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थित रहता हुआ भय रहित तथा अच्छी प्रकार शान्त अन्तःकरण वाला और साव्धान होकर मन को वश में करके, मेरे में लगे हाचित्तवाला और मेरे परायण हुआ स्थित होवे||१४||

* इस प्रकार आत्मा को निरन्तर परमेश्वर के स्वरूप-में लगाता हुआ स्वाधीन मन वाला योगी मेरे में स्थिति रूप परमानन्द पराकाष्ठावाली शान्ति को प्राप्त होता है||१५||

* परंतु हे अर्जुन ! यह योग न तो बहुत खाने वाले का सिद्ध होता है और न बिल्कुल न खाने वाले का तथा न अति शयन करने के स्वभाव-वाले का और न अत्यन्त जागने वाले का ही सिद्ध होता है||१६||

* यह दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथा-योग्य आहार और विहार करने वाले का तथा कर्मों में
यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथा योग्य शयन ना करने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है||१७||

* इस प्रकार योग के अभ्यास से अत्यन्त वश में किया हुआ चित्त, जिस काल में परमात्मा में ही भली प्रकार स्थित हो जाता है, उस काल में सम्पूर्ण कामनाओं से स्पृहा रहित हुआ पुरुष योगयुक्त ऐसा कहा जाता है||१८||

* जिस प्रकार वायु रहित स्थान-में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता है, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गयी है||१९||

* हे अर्जुन ! जिस अवस्था में, योग के अभ्यास से निरुद्ध हुआ,चित्त उपराम हो जाता है और जिस अवस्था में परमेश्वर के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात् करता हुआ, सच्चिदानन्दधन परमात्मामें ही संतुष्ट होता है||२०||

* तथा इन्द्रियों से अतीत केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है और जिस अवस्था स्थित हुआ यह योगी भगवत्स्वरूप से नहीं चलायमान होता है||२१||

* और परमेश्वर की प्राप्ति जिस लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता है और भगवत्-प्राणि-रूप जिस अवस्था में स्थित हुआ योगी बड़े भारी दुःखसे भी चलायमान नहीं होता है||२२||

* दुःखरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिस नाम योग है, उसको जानना चाहिये, वह योग उकताये हुए चित से अर्थात् तत्पर हुए विवेक निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है||२३||

* इसलिए मनुष्य को चाहिये कि संकल्प से उत्पन्न होने वाले सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेषता से अर्थात् बलि और आसक्ति सहित त्यागकर और मनके द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सब ओर से ही अच्छी प्रकार बश में करके||२४||

* क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपररामता को प्राप्त होवे तथा धैर्य युक्त बुद्धि द्वारा मनको परमात्मा में स्थित करके, परमात्मा के सिवाय और कुछ भी चिन्तन न करे||२५||

* परंतु जिसका मन वश में नहीं हुआ हो, उसको चाहिये कि यह स्थिर न रहने वाला और चञ्चल मन जिस-जिस
कारण से सांसारिक पदार्थों में विचरता है, उस-उससे रोककर बारम्बार परमात्मा में ही निरोध करे||२६||

* क्योंकि जिसका मन अच्छी प्रकार शान्त है और जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शान्त हो गया है ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगीको अति उत्तम आनन्द प्राप्त होता है||२७||

* वह पापरहित योगी इस प्रकार निरन्तर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुख-पूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रूप अनन्त आनन्द-को अनुभव करता है||२८||

* हे अर्जुन ! सर्वव्यापी अनन्त चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त हुए आत्मा वाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में बर्फमें जल के सदृश व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को आत्माय देखता है, अर्थात् जैसे स्वप्न से जगा हुआ पुरुष स्वप्न के संसार को अपने अन्तर्गत संकल्प के आधार देखता है, वैसे ही वह पुरुष सम्पूर्ण भूतों को अपने सर्वव्यापी अनन्त चेतन आत्मा के अन्तर्गत संकल्पन आधार देखता है||२९||

* जो पुरुष सम्पूर्ण भूतो सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता है, क्योंकि वह मेरे में एकीभाव से स्थित है||३०||

* इस प्रकार जो पुरुष एकीभाव में स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव को
भजता है, वह योगी सब प्रकारसे बर्तता हुआ भी मेरेमें ही बर्तता है, क्योंकि उसके अनुभव में मेरे सिवा अन्य कुछ है ही नहीं||३१||

* हे अर्जुन ! जो योगी अपनी सादृश्यता से सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परमश्रेष्ठ माना गया है||३२||

* इस प्रकार भगवान्‌ के वाक्यों को सुनकर अर्जुन बोला, हे मधुसूदन ! जो यह ध्यानयोग आपने समभाव से कहा है, इसकी मैं मनके चञ्चल होने-ने बहुत काल तक ठहरने वाली स्थिति को नहीं देखता हूँ||३३||

* क्योंकि हे कृष्ण ! यह मन बड़ा चञ्चल और प्रमथन स्वभाव वाला है तथा बड़ा दृढ़ और बलवान् है इसलिये इसका वश में करना मैं वायु की भाँति अति दुष्कर मानता हूँ||३४||

* इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण भगवान् बोले, हे महा-बाहो ! निःसन्देह मन चञ्चल और कठिनता से
वश में होने वाला है, परंतु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! अभ्यास अर्थात् स्थिति के लिये बारम्बार यत्न करने से और वैराग्य से वश में होता है, इसलिये इसको अवश्य वश मे करना चाहियं||३५||

* क्योंकि मन को वश में न करने वाले पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है अर्थात प्राप्त होना कठिन है और स्वाधीन मन-
वाले प्रयत्न शील पुरुष द्वारा साधन करने से प्राप्त होना सहज है यह मेरा मत है||३६||

* इस पर अर्जुन बोला, हे कृष्ण ! योग से चलाय-मान हो गया है मन जिसका ऐसा शिथिल यत्न-वाला श्रद्धा युक्त पुरुष योग की सिद्धि को अर्थात् भगवत्-साक्षात्कारता को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है ?||३७||

* हे महाबाहो ! क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित हुआ आश्रय रहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल की भाँति दोनों ओर से अर्थात् भगवत्प्राप्ति और सांसारिक भोगों से भ्रष्ट हुआ नष्ट तो नहीं हो जाता है ?||३८||

* हे कृष्ण ! मेरे इस संशय को सम्पूर्णता से छेदन करने के लिये आप ही योग्य हैं, क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस
संशय का छेदन करने वाला मिलना सम्भव नहीं है||३९||

* इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्री कृष्ण भगवान् बोले, हे पार्थ उस पुरुष का, न तो इस लोक में और न पर लोक में ही नाश होता है, क्योंकि हे प्यारे ! कोई भी शुभ कर्म करने वाला अर्थात् भगवत्-अर्थकर्म करने वाला दुर्गति को नहीं प्राप्त होता है||४०||

* किंतु वह योग भ्रष्ट पुरुष पुण्य वानों के लोकों को अर्थात् स्वर्गादिक उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, उनमें बहुत
वर्षों तक वास करके शुद्ध आचरण वाले श्रीमान् पुरुषों के घरमें जन्म लेता है||४१||

* अथवा वैराग्य-बान् पुरुष उन लोकों में न जाकर, ज्ञानवान् योगियों-के ही कुल में जन्म लेता है, परंतु इस प्रकार का जो यह जन्म है, सो संसार में निःसन्देह अति दुर्लभ है||४२||

* वह पुरुष वहाँ उस पहिले शरीर में साधन किये हुए बुद्धि के संयोग को अर्थात् समत्व बुद्धियोग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनन्दन ! उसके प्रभाव से फिर अच्छी प्रकार भगवत्प्राप्ति के निमित्त यत्न करता है||४३||

* वह विषयों के वश में हुआ भी उस पहिले के अभ्यास से ही निःसन्देह भगवत् की ओर आर्काषत किया जाता है तथा समत्व बुद्धि रूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकाम कर्मों के फल को उल्लङ्घन कर जाता योगी भी परम गति को प्राप्त हो जाता है, तब क्या है||४४||

* जब कि इस प्रकार मन्द प्रयत्न करने वाला सिद्धि को प्राप्त हुआ और अति प्रयत्न से अभ्यास कहना है कि अनेक जन्मों से अन्तःकरण की शुद्धिरूय करने वाला योगी सम्पूर्ण पापों से अच्छी प्रकार शुद्ध होकर, उस साधन के प्रभाव से परम गति को प्राप्त होता है, अर्थात् परमात्मा को प्राप्त होता है||४५||

* क्योंकि योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है और शास्त्र के ज्ञानवालों से भी श्रेष्ठ माना गया है तथा सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इससे हे अर्जुन ! तूं योगी हो||४६||

* हे प्यारे ! सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान् योगी मेरे में लगे हुए अन्तरात्मा से मेरे को निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परम- श्रेष्ठ मान्य है||४७||

* इति श्रीमद्भगवद्गीता रूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में
"आत्मसंयमयोग" नामक छठा अध्याय||६||

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