मन को एकाग्र करने का मंत्र | Man Shant Karne Ka Mantra
Man Ko Ekagra Kaise Kare
आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में मन को एकाग्र करना सबसे कठिन कार्य बन गया है। चिंता, तनाव और अनावश्यक विचार मन को विचलित कर देते हैं। ऐसे में, "मन को एकाग्र करने का मंत्र | Man Shant Karne Ka Mantra" एक चमत्कारी उपाय साबित हो सकता है। यह न केवल मानसिक शांति देता है, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति की ओर भी मार्गदर्शन करता है।मन को वश में करने का मुख्य उपाय
(Mind control) मन को निग्रह करने के लिये सर्व प्रथम गीताजी में कहे अनुसार स्थान व आसन ग्रहण करें।श्लोक-
* शुचौ देशे प्रतिष्ठाय स्थिरमासनमात्मनः,
नात्युच्छ्रितंनातिनीचं, चैलाजिन कुशोत्तरम् ||(गीता अ० ६।११)
* लीपी पुती बैठक मांहि प्यारे,
ऊनी कुशा आसन को बिछारे,
आसन जमा सीधा बैठ जारे,
दोनों करों को अपने मिलारे ||
प्रश्न- ऊन का आसन क्यों ?
उत्तर- शरीर के अन्दर बिजली(ताप) होती है वह ध्यान करने से और भी बढ़ती है तथा पृथ्वी के अन्दर आकर्षण शक्ति विशेष होने से पृथ्वी उस (Power) शक्ति को खींच लेती है। किन्तु उनका आसन होने से नहीं खींचती । प्रमाण (X-Rays) एक्सरे में अन्दर का फोटो उतारा जाता है, किन्तु यदि ऊनी कपड़ा पहनलो तो अन्दर का फोटो नहीं आयेगा । सूती कपड़े चाहे कितने ही पहने रहो इस साइन्स (Science) के प्रमाण के आधार पर भी ऊनी आसन की आवश्यकता है धार्मिक प्रणाली वाले तो मानते ही हैं।प्रश्न- दोनों हाथों को क्यों मिलावें ?
उत्तर- हाथों के अन्दर भी विद्युत, (बिजली) है वह भी बाहर निकलती है और यदि हाथों का कनक्शन (सम्बन्ध) मिला रहेगा तो वह भी अपने अन्दर रहेगी इसी लिये प्रणाम भी हाथ जोड़ कर ही करें। सिद्धासन, पद्मासन या सहज आसन से बैठ जाइये ।सिद्धासन लगाने की विधि- बांयें (Left) पैर को पंजाबी भाषा में जिसे खव्वा पैर तथा मध्य प्रदेश में दांया पैर कहते हैं, उस पैर को मल त्याग करने की और मूत्र त्याग करने की, दोनों इन्द्रियों के बीच में जो खाली जगह है उस पर दृढ़ता के साथ जमायें और सीधे (Right) पैर को पंजाबी में सज्जे पैर को बांयें पैर की जंघा पर रख लें यह सिद्धासन की विधि है।
सिद्धासन से बैठना महान लाभप्रद है प्रमेह तक बन्द हो जाता है। यदि किसी कारण वश इन आसनों से नहीं बैठ सकें तो कुर्सी आदि पर भी सीधे बठ जाइये, अथवा यदि इतना भी न कर सको तो, दण्डासन से सीधे लेट जाइये, सिर के नीचे कुछ न रखिये जमीन पर या तख्त पोश पर, सबसे पहले योग मुद्रा और कंठ मुद्रा ५ मिनट कर लेनी चाहिये।
पहाड़ पर अभ्यास की उपयोगिता क्यों ?
* समुद्र के घरातल की अपेक्षा उससे ऊचे स्थान पहाड़ आदि में, वहां के रहने वाले कार्बोनिक एसिड गैस कम व्यय करते हैं इस लिये पहाड़ तपस्या और अभ्यास के लिये अधिक उपयोगी समझे जाते हैं।जलाशय के किनारे ध्यान की उपयोगिता क्यों ?
* पृथ्वी के उस भाग में जहाँ नमी अधिक हुआ करती है वहाँ के रहने वाले सूखे भाग में रहने वालों की अपेक्षा कार्बोनिक एसिड गैस कम खर्च करते हैं। इस लिये उन्हें भूख भी कम तकलीफ देती है। मनुजी ने भी धर्मशास्त्र में जलाशय के किनारे भजन साघन करने को लिखा है।गुफाओं में रहकर अभ्यास की उपयोगिता क्यों ?
* पुराने योगी, मांद में रहने वाले पशुओं की भाँति गुफाओं में रहा करते थे क्योंकि जितना भी बाहर का शीतोष्ण प्राणियों के भीतरी शीतोष्ण के निकट होगा उतनी ही भूख कम लगेगी।* कारण स्पष्ट है कि ऐसे बाह्य शीतोष्ण में शीत की मात्रा अधिक नहीं हो सकती, इसीलिये भूमध्य रेखा के समीपवर्ती प्राणियों की अपेक्षा ध्रुब देश के समीपवर्ती प्राणियों को भूख की इच्छा अधिक हुआ करती है।
* एक बात और भी है और वह यह कि जो स्थान चारों ओर से घिरे होते हैं। जैसे गुफा, उनमें रहने वाले, कार्बोनिक एसिड गैस, उन स्थानों में रहने वालों की अपेक्षा जो चारों ओर से खुले रहते हैं, कम खर्च करते हैं।
* इसीलिए उन्हें भूख भी कम सताती है। इन कारणों से योगियों को छोटे द्वार वाली गुफाओं में रहना अधिक रुचिकर होता है।
कम बोलना अथवा मौनावलम्बन क्यों ?
* यदि मनुष्य चुप रहे तो उसकी अपेक्षा नियत समय में बोलने वाले बाले, अधिक कार्बोनिक एसिड गैस व्यय करते हैं। इसीलिये योगी मौन रहना अपने लिये अच्छा समझते हैं। इससे भी वे भूख की चिन्ता से मुक्त रहते हैं।कष्ठ मुद्रा की विधि
* मुंह की ठोड़ी को गर्दन के नीचे जहां से गर्दन शुरू होती है एक गड्ढा होता है। उस गड्ढे में ठोड़ी जमावनी चाहिये यह कण्ठ मुद्रा है, इसे कंठ वन्य व जालन्धर वन्य भी कहते हैं।योग मुद्रा की विधि
* सिर के पीछे भाग की पीठ पर वहां से गर्दन प्रारम्भ होती है वहाँ लगाने को योग मुद्रा कहते हैं।सर्दी के दिन हों तो भ्स्ष्टि का क्रियाय और गरमी हो तो शीतली या सीत्कारी प्राणायाम कर लेना चाहिये इसकी विधि मुझ से या किसी अन्य महापुरुष से प्रैक्टीकल [Practical] सीखलें । अब तन, मन, प्राण तीनों को स्थिर करने के लिये यानी [Full Rest] के लिये गीता में कहा है कि-
* समं काय शिरो ग्रीवं, धारयन्नचल स्थिरः ||(गीता अ० ६ श्लोक १३)
भावार्थ
* काया, गर्दन, सिरा को सीधा करके जिससे मेरु दण्ड बिल्कुल सीधा रहे अचल भाव से स्थिर बिना हिले-झुले तीन घंटे तक बैठने या लेटने का अभ्यास करिये । जब तन स्थिर हो जाय तब आसन सिद्ध हो जाता है उसे जयासन कहते हैं ।
लाभ क्या है ? ततो द्वन्दा न विधाता, उसे द्वन्द कम सताते हैं ।
* पुनः मन को एकाग्र करने के लिये कोई एक ऐसा भगवान का चित्र लो जो आपको विशेष आकर्षक मालूम दे उसे लेकर सामने रखो नीचे से लेकर ऊपर तक देखो । इस प्रकार ३ या ४ दिन देखने के बाद आपको उसे देखने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी । उसका दृश्य मन में उतर आवेगा फिर फोटो हटा दीजिये । और उसी रूप को दोनोंभोंहों के बीच के भाग में, जिसे त्रिकुटी कहते हैं। जहां पर कि तिलक की बिन्दी लगाई जाती है ध्यान करिये तथा खेचरी मुद्रा लगाने से ध्यान अच्छा लगता है। जीभ को ऊपर उलट कर तालु के स्थान में लगाना, खेचरी मुद्रा है।
* प्रयाणकाले मनसाचलेन,
भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव,
ध्रुवोर्मध्ये प्रणमावेश्य सम्यक्,
स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ||(गीता अ० ८।१०)
* योग बल से दोनों भौंहों के मध्य में प्राणों को स्थिर करे तथा दृष्टि को भी ऊपर उलट कर पुतली ऊपर चढ़ा कर भोहों के मध्य भाग में देखे । यह साधन पाँच-पाँच मिनट बढ़ाना चाहिये । यदि आँखों में और माथे में दरद हो तो मक्खन और कपूर मिला कर मालिश कर लेनी चाहिये ।
* उकता कर साधन नहीं छोड़ना चाहिये, इससे दृष्टि अन्तर्मुख होती है और दूसरे मन रुकता है क्योंकि संकल्प विकल्प दिमाग (mind) मस्तिष्क से ही उठते हैं यानी सिर के पीछे के भाग से, और फिर ब्रह्मरन्ध्र में होकर (जहां शिखा होती है उसके पास ही ब्रह्मरन्ध्र है उसमें होकर) त्रिकुटी, जिसे आज्ञा-चक्र भी कहते हैं, जिसका कि स्थान दोनों मोहों के बीच में है। वहां होकर मन के संकल्प बाहर श्राते हैं।
* अतः उसी मन के मार्ग को अन्तर्मुखी दृष्टि करके दोनों भौंहों के बीच ही पुतलियां उलट कर रोक देवे अभ्यास की गति धीरे-धीरे बढ़ावे । पुनः प्राण स्थिर करने के लिये गीता में भी कहा है कि
* स्पर्शान्कृत्वा बहिर्वाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे ध्रुवोः,
प्राणापानी समी कृत्वा, नासाभ्यन्तरचारिणौ ||(गीता श्र० ५।२७)
भावार्थ - बाहर के विषय भोगों को न चिन्तन करता हुआ बाहर ही त्याग कर, और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थिर करके (तथा) नासिका में विचरने वाले प्राण धौर अपान बांधु को सम करे।
* प्राणों को सम करने की पूरक, कुम्भकरेचक, धादि धौर भी विधियां हैं किन्तु "सर्वोत्तम विधि यह है" कि-स्वास के आने जाने की किया की और ध्यानपूर्वक सुरति रखने से (कि अब स्वास आया व बाहर गया) प्राण स्थिर होकर के ध्यान जम जाता है या ओ३म मन्त्र को दो खण्डों में विभाजित करके श्वास के आने जाने की क्रिया के साथ, बिना जीभ व होठ हिलाये, नासिका से श्वास लेते हुए, केवल मन से ही उच्चारण करिये।
* यानी श्वास के अन्दर खींचने के समय 'रा' और बाहर छोड़ने के समय 'म' का उच्चारण मन ही मन करते रहिये, इसे अजपा जाप कहते हैं। बानी, उठे श्वास तब 'रा' उच्चारो निकसत बोलो 'म' वाणी। अथवा 'सोऽहं मन्त्र को भी, उठे श्वास तब 'सो' उच्चारो निकसत बोलो 'ह' वाणी, अथवा ओ३म् मन्त्र को उठे श्वास तब 'ओऽ' उच्चारो निकसत बोलो 'अम्' वाणी ।
* इस प्रकार श्वास की क्रिया के आने, जाने के साथ मन्त्र का लक्ष्य करो । लगातार तीन घण्टे साघन करने के अभ्यास से मन रुक जाता है, तथा श्वास की गति बहुत धीमी बाल जैसी सूक्ष्म हो जाती है, फिर बहुत समय तक स्थिर रहने लगती है तब तन, मन, प्राण भी पूर्णतया स्थिर हो जाता है। तथा प्राण व मन की गति अत्यन्त सूक्ष्म होकर रुक जाने पर
* वाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्,
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ||(गीता अ० ५।२१)
बाहर के विषयों से आश्रित रहित शुद्ध अन्तःकरण वाला पुरुष या स्त्री कोई भी हो, अन्तःकरण के ही अन्दर जो भजन व ध्यान जनित द्यानन्द है, जिसको निजानन्द, स्वात्मानन्द, या परमात्मानन्द कहते हैं, वृत्ति के धन्मुख हो जाने से विशेष अनुनय करता है, महान ही धानन्द की प्राप्ति होती है।
* संसार में ऐसा कोई भी धानन्द नहीं जिसकी उपमा दी जा सकेध्यान में प्रायः यो इण्डियाँ विशेष बाधा देती है। एक तो कान धौर दूसरे नेत्र, क्योंकि कानों में जहाँ कोई शब्द पड़ा त्यों ही बाँखें खोल कर देखने लग जाती है। यतः इन दोनों विश्नों का उपाय यह है कि, नेत्रों की पुतली उलट कर उत्पर देखें बाहर देखें। और कानों को बन्द करने के लिये एकान्त सेवन करें किन्तु पूर्णतया एकान्त तो वनों में भी नहीं मिलता कुछ न कुछ शब्द तो पशु पक्षियों का वहाँ भी होता ही रहता है, तो फिर कहाँ जायें, कैसे करें, क्या करें, कर्ण इन्द्रिय के लिये ?
उपाय - कपास की रुई लेकर देशी शहद में जो मोम निकलता है, उस मोम को गरम करके रुई उस गरम मोम में
डाल दो फिर सूखने पर उस रुई की गोली बना लो इतनी बडी जितनी कि कान में अन्दर था सके उसके ऊपर हल्का कपड़ा चड़ा कर सिलाई कर दो, कुछ धागे उसमें ऐसे टांक कर लटका दो, कि जिन्हें पकड़ कर कान के अन्दर से गोलियाँ बाहर खींची जा सकें ?
* बस धब उन रुई की गोलियों को कान के अन्दर लगा कर बैठ जाओ अब घर में भी एकान्त मिल जायेगा, बाहर के कोलाहल का शब्द बाधा नहीं पहुंचायेगा। किसी भी प्रकार का विष्त प्रतीत होने पर साधन को त्यागना नहीं चाहिए । सफलता अवश्य होगी, बह्मचर्य का पूरा पालन होना चाहिए।