श्रीमद भगवत गीता भाषा अध्याय १६ | Shrimad Bhagwat Geeta Bhasha Adhyay 16

Shrimad Bhagwat Geeta Bhasha Adhyay 16 Hindi

श्रीमद भगवत गीता सनातन धर्म का सबसे पवित्र और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह ग्रंथ महाभारत के भीष्म पर्व में वर्णित है और इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध भूमि में जो दिव्य उपदेश दिए, वही "भगवत गीता" कहलाता है। श्रीमद भगवत गीता अध्याय १६ को "देवासुर सम्पद्द्विभाव योग" कहा जाता है।


Shrimad Bhagwat Geeta Bhasha Adhyay 16

षष्टदस अध्याय - देवासुर सम्पद्द्विभाव योग

* उसके उपरान्त श्रीकृष्ण भगवान् फिर बोले, हे अर्जुन ! दैवी संपदा जिन पुरुषों को प्राप्त है तथा जिनको आसुरी संपदा प्राप्त है, उनके लक्षण पृथक्-अन्तःकरण को अच्छी प्रकार से स्वच्छता, तत्त्व ज्ञान-पथक् कहता है, उनमें से सर्वथा भय का अभाव, के लिये ध्यान योग में निरन्तर हदृढ़ स्थिति" और सात्त्विक दानी तथा इन्द्रियों का दमन, भगवत्पूजा और अग्निहोत्रादि उत्तम कर्मों का आचरण एवं बेदशास्त्रों के पठन पाठन पूर्वक भगवत्‌ के नाम और
गणों का कीर्तन तथा स्वधर्म-पालन के लिये कष्ट बहन करना एवं शरीर और इन्द्रियों के सहित अन्तः-करण को सरलता||१||

* तथा मन, वाणी और शरीर-किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना तथा यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करने-वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्ता पन के अभिमान का त्याग एवं अन्तःकरण को उपरामता अर्थात चित्त की चञ्चलता का अभाव और किसी की भी निन्दादि न करना तथा सब भूत प्राणियाम हेतु रहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी आसक्ति का न होना और कोमलता तथा लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव||२||

* तथा तेजी, क्षमा, धैर्य और बाहर-भीतर की शुद्धि एवं किसी में भी शत्रु भाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव यह सब तो हे अर्जुन ! दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं||३||

* हे पार्थ ! पाखण्ड, घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध और कठोर वाणी एवं अज्ञान भी यह सब आसुरी संपदा को प्राप्त हुए पुरुषके लक्षण हैं||४||

* उन दोनों प्रकार की संपदाओं में दैवी संपदा तो मुक्ति के लिये और आसुरी संपदा बाँधने के लिये मानी गयी है, इसलिये हे अर्जुन ! तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है||५||

* हे अर्जुन ! इस लोक में भूतों के स्वभाव दो प्रकार के माने गये हैं-एक तो देवों के जैसा और दूसरा असुरो के जैसा, उनमें देवों का स्वभाव ही विस्तारपूर्वक कहा गया है, इसलिये अब असुरों के स्वभाव को भी विस्तारपूर्वक मेरे से सुन||६||

* हे अर्जुन ! आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कर्तव्य कार्य में प्रवृत्त होने को और अकर्तव्य कार्य से निवृत्त होने को भी नहीं जानते हैं, इसलिये उनमें न तो बाहर-भीतर को शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्यभाषण ही है||७||

* वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहते हैं कि जगत् आश्रय रहित और सर्वथा झूठा एवं बिना ईश्वर के अपने-आप स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है, इसलिये केवल भोगों को भोगने के लिये हो है, इसके सिवाय और क्या है||८||

* इस प्रकार इस मिथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके नष्ट हो गया है स्वभाव जिनका तथा मन्द है बुद्धि जिनको, ऐसे वे सबका अपकार करने वाले क्रूर कर्मी मनुष्य केवल जगत्का नाश करने के लिये ही उत्पन्न होते हैं||९||

* वे मनुष्य दम्भ, मान और मद से युक्त हुए किसी प्रकार भी न पूर्ण होने वालो कामनाओं का आसरा लेकर तथा अज्ञानसे मिथ्या सिद्धान्तो को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त हुए संसार में बर्तते हैं||१०||

* वे मरण पर्यन्त रहने वाली अनन्त चिन्ताओं को आश्रय किये हुए और विषय भोगों के भोगने मे तत्पर हुए एव इतना मात्र हो आनन्द हैं. ऐसे मानने वाले हैं||११||

* इसलिये, आशा रूप सेंकडों फाँसियों से बंधे हुए और काम-क्रोध के परायण हुए विषयभोगों की पूति के लिये अन्याय पूर्वक धनादिक बहुत-से पदार्थों को संग्रह करने की चेष्टा करते हैं||१२||

* उन पुरुषों के विचार इस प्रकार के होते हैं कि मैंने आज यह तो पाया है और इस मनोरथ को प्राप्त होऊँगा तथा मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह होवेगा||१३||

* वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और दूसरे शत्रुओं को भी मैं मारूँगा तथा मैं ईश्वर और ऐश्वर्य को भोगनेवाला हूँ और मैं सब सिद्धियों से युक्त एवं बलवान् और सुखी हूँ||१४||

* मैं बड़ा धनवान् और बड़े कुटुम्बवाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है ? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूंगा, हर्ष को प्राप्त होऊंगा, इस प्रकार के अज्ञान से मोहित हैं||१५||

* इसलिये वे अनेक प्रकार से भ्रमित हुए चित्त-वाले अज्ञानी जन मोह रूप जाल में फँसे हुए एवं विषय भोगो में अत्यन्त आसक्त हुए महान् अपवित्र नरक में गिरते हैं||१६||

* वे अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और मान के मद से युक्त हुए, शास्त्र विधि से रहित केवल नाम मात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से यजन करते हैं||१७||

* वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के परायण हुए एवं दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष अपने और दूसरोंके शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करनेवाले हैं||१८||

* ऐसे उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही गिराता हूँ अर्थात् शूकर, कूकर आदि नीच योनियों में ही उत्पन्न करता हूँ||१९||

* इसलिये हे अर्जुन ! वे मूढ़ पुरुष जन्म-जन्म- में आसुरी योनि को प्राप्त हुए मेरे को न प्राप्त होकर, उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरक में पड़ते हैं||२०||

* हे अर्जुन ! काम, क्रोध तथा लोभ यह तीन करके नरक के द्वार. आत्मा का नाश करने वाले हैं अर्थात् अधोगति में ले जाने वाले हैं, इन तीनों को त्याग देना चाहिये||२१||

* क्योंकि हे अर्जुन ! इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त हुआ अर्थात् काम, क्रोध और लोभ आदि विकारों से छूटा हुआ पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है। इसस वह परम गति-को जाता है अर्थात् मेरे को प्राप्त होता है||२२||

* जो पुरुष शास्त्र की विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से बर्तता है, वह न तो सिद्धि को प्राप्त होता है और न परम गति को तथा न सुख को ही प्राप्त होता है||२३||

* इससे तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्य को व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है, ऐसा जानकर तू शास्त्र विधि से नियत किये हुए कर्म को ही करनेके लिये योग्य है||२४||

* इति श्रीमद्भगवद्गीता रूपी उपनिषद् एवं ब्रह्म विद्या तथा योग शास्त्र-विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में "दैवासुरसंपद्विभागयोग" नामक सोलहवाँ अध्याय ||१६||


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