श्रीमद भगवत गीता भाषा अध्याय १५ | Shrimad Bhagwat Geeta Bhasha Adhyay 15
Shrimad Bhagwat Geeta Bhasha Adhyay 14 Hindi
श्रीमद भगवत गीता सनातन धर्म का सबसे पवित्र और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह ग्रंथ महाभारत के भीष्म पर्व में वर्णित है और इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध भूमि में जो दिव्य उपदेश दिए, वही "भगवत गीता" कहलाता है। श्रीमद भगवत गीता अध्याय १५ को "पुरुषोत्तम योग" कहा जाता है।पंचदश अध्याय - पुरुषोत्तम योग
* उसके उपरान्त, श्री कृष्ण भगवान् फिर बोले कि हे अर्जुन ! आदि पुरुष, परमेश्वर रूप मूल वाले' और ब्रह्मा रूप मुख्य शाखा वाले जिस संसार रूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं तथा जिसके वेद पत्ते कहे गये हैं, उस संसार रूप वृक्ष को, जो पुरुष मूल सहित तत्त्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है||१||* हे अर्जुन ! उस संसार वृक्ष की तीनों गुण रूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं विषय' भोग रूप कोंपलों वाली, देव, मनुष्य और तिर्यक आदि योनि रूप शाखाएँ नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्य योनि में कर्मों के अनुसार बाँधने वाली अहंता, ममता और वासना-रूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं||२||
* परंतु इस संसार वृक्ष का स्वरूप जैसा कहा है, वैसा यहाँ विचार काल में नहीं पाया जाता है; क्योंकि न तो इसका आदि है और न अन्त है तथा न अच्छी प्रकार से स्थिति हो है, इसलिये इस अहंता, ममता और वासना रूप अति
दृढ़ मूलों वाले संसार रूप पीपल के वृक्ष को दृढ़ वैराग्यरूपी शस्त्र द्वारा काटकर||३||
* उसके उपरान्त उस परम पदरूप परमेश्वर को अच्छी प्रकार खोजना चाहिये कि जिसमें गये हुए पुरुष फिर पीछे संसार-में नहीं आते हैं और जिस परमेश्वर से यह पुरातन संसार वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उस ही आदि पुरुष नारायण के मैं शरण हूँ, इस प्रकार दृढ़निश्चय करके||४||
* नष्ट हो गया है मान और मोह जिनका तथा जीत लिया है आशक्ति रूप दोष जिनने और परमात्मा के स्वरूप में है निरन्तर स्थिति जिनको तथा अच्छी प्रकार से नष्ट हो गयी है कामना जिनकी, ऐसे वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त हुए ज्ञानीजन, उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं||५||
* उस स्वयं प्रकाश मय परम पद को न सर्व प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकता है तथा जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में नहीं आते हैं वही मेरा परमधाम हैं'||६||
* हे अर्जुन ! इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है। और वही इन त्रिगुण मयी माया में स्थित हुई मन सहित पाँचों इन्द्रियों को आकर्षण करता है||७||
* कैसे कि, वायु गन्ध के स्थान से गन्ध-को जैसे ग्रहण करके ले जाता है वैसे ही देहादिकों-का स्वामी जीवात्मा भी जिस पहिले शरीर को त्यागता है, उससे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके, फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है||८||
* उस शरीर में स्थित हुआ यह जीवात्मा धोत्र, चक्षु और त्वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके अर्थात् इन सबके सहारे से हो विषयों को सेवन करता है||९||
* परंतु शरीर छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानी जन नहीं जानते हैं, केवल ज्ञान-रूप नेत्रों वाले ज्ञानी जन ही तत्त्वसे जानते हैं||१०||
* क्योंकि योगी जन भी अपने हृदय में स्थित हुए इस आत्मा को यत्न करते हुए ही तत्त्व से जानते हैं और जिन्होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ध नहीं किया है ऐसे अज्ञानी जन तो यत्न करते हुए भी इस आत्मा-को नहीं जानते हैं||११||
* हे अर्जुन ! जो तेज सूर्य में स्थित हुआ सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में स्थित है और जो तेज अग्नि में स्थित है उसको तूं मेरा ही तेज जान||१२||
* और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके, अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूँ और रस स्वरूप अर्थात् अमृत मय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण ओषधियों को अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ||१३||
* तथा मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ, वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राप और अपान से युक्त हुआ, चार प्रकार के अन्न को पचाता है||१४||
* और मैं हो सब प्राणियों के हृदयम अन्तर्यामी रूप से स्थित हैं तथा मेरे से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हैं तथा वेदान्तका कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ||१५||
* हे अर्जुन ! इस संसार में नाशवान् और अविनाशी भी यह दो प्रकारके पुरुष हैं, उनमें सम्पूर्ण भूत प्राणियों के शरीर तो नाशवान् और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है||१६||
* तथा उन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है कि जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं
अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा ऐसे कहा गया है||१७||
* क्योंकि मैं नाशवान्, जड़वर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हैं । और माया में स्थित अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हैं, इसलिये लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ||१८||
* हे भारत इस प्रकार तत्त्व से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरन्तर
मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है||१९||
* हे निष्पाप अर्जुन ! ऐसे यह अति रहस्य युक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्त्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान् और कृतार्थ हो जाता है, अर्थात उसको और कुछ भी करना शेष नहीं रहता||२०||
* इति श्रीमद्भगवद्गीता रूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में "पुरुषोत्तमयोग" नामक पंद्रहवाँ अध्याय ||१५||