श्रीमद भगवत गीता भाषा अध्याय ८ | Shrimad Bhagwat Geeta Bhasha Adhyay 8

Shrimad Bhagwat Geeta Bhasha Adhyay 8 Hindi

श्रीमद भगवत गीता सनातन धर्म का सबसे पवित्र और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह ग्रंथ महाभारत के भीष्म पर्व में वर्णित है और इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध भूमि में जो दिव्य उपदेश दिए, वही "भगवत गीता" कहलाता है। श्रीमद भगवत गीता अध्याय 8 को "अक्षर ब्रह्म योग" कहा जाता है।


Shrimad Bhagwat Geeta Bhasha Adhyay 8

अष्टम अध्याय - अक्षर ब्रह्म योग

* इस प्रकार भगवान् के वचनों को न समझकर अर्जुन बोला, हे पुरुषोत्तम ! जिसका आपने वर्णन किया वह ब्रह्म क्या है ? अध्यात्म क्या है ?  कर्म क्या है और अधिभूत नामसे क्या कहा गया है ? अधिदैव नामसे क्या कहा जाता है ?||१||

* हे मधु-सूदन ! यहाँ अधियज्ञ कौन है ? और वह इस शरीर में कैसे है ? और युक्त चित्तवाले पुरुषों द्वारा अन्त समय में आप किस प्रकार जानने आते हो ?||२||

* इस प्रकार अचानक प्रश्न करने पर श्रीकृष्ण भगवान् बोले, हे अर्जुन ! परम अक्षर अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं हो, ऐसा सच्चिदानन्दघन परमात्मा तो ब्रह्म है और अपना स्वरूप अर्थात् जीवात्मा अध्यात्म नाम से कहा जाता है तथा भूतोंके भाव को उत्पन्न करने वाला शास्त्र विहित यज्ञ, दान और होम आदि के निमित्त जो द्रव्यादिकों का त्याग है, वह कर्म नाम से कहा गया है||३||

* उत्पत्ति, विनाश धर्म-वाले सब पदार्थ अधिभूत हैं और हिरण्यमय पुरुष अधिदैव है और हे देह धारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! इस शरीर में मैं वासुदेव ही विष्णुरूप से अधियज्ञ हूँ||४||

* और जो पुरुष अन्तकाल में मेरे को ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह मेरे साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है||५||

* कारण कि हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, उस-उसको ही प्राप्त होता है, परत सदा उस ही भाव को चिन्तन करता हुआ, क्योकि सदा जिस भाव का चिन्तन करता है. अन्तकाल में भी प्रायः उसी का स्मरण होता है||६||

* इसलिये हे अर्जुन  ! तू सब समय में निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर, इस प्रकार मेरे में अर्पण किये हुए मन, बुद्धि से युक्त हुआ, निःसन्देह मेरे को ही प्राप्त होगा||७||

* हे पार्थ ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यास रूप योग से युक्त, अन्य तरफ न जाने वाले वित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ पुरुष परम प्रकाश रूप, दिव्य पुरुष को अर्थात् परमेश्वर को ही प्राप्त होता है||८||

* इससे जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियन्ता, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, सबके धारण पोषण करने वाले, अचिन्त्यस्वरूप, सूर्य के सदृश, नित्य चेतन प्रकाश रूप, अविद्या से अतिपरे गुढ सच्चिदानन्दधन परमात्मा को स्मरण करता है||९||

* वह भक्ति युक्त पुरुष अन्तकाल में भी योगबल-से प्रकटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापना करके फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ दिव्यस्वरूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त है||१०||

* हे अर्जुन ! वेद के जानने वाले विद्वान् भी सच्चिदानन्दघनरूप परमपद को ओंकार नाम से करते हैं और आसक्तिरहित यत्नशील महात्मा जन प्रवेश करते हैं तथा जिस परमपद को चाहने वाला ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को आप के लिए संक्षेप से कहूँगा||११||

* हे अर्जुन ! सब इन्द्रियो द्वारों को रोक कर अर्थात् इन्द्रियों को विषयों से हटकर तथा मन को हृदय में स्थिर करके और अपने प्राण को मस्तक में स्थापना करके योग धारणा में स्थित हुआ||१२||

* जो पुरुष, ॐ ऐसे इस एक अक्षरस्त ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थ ही रूप मेरे को चिन्तन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है||१३||

* हे अर्जुन ! जो पुरुष मेरे में अनन्य चित्त से स्थित हुआ सदा ही निरन्तर मेरे को स्मरण करता है उन्हे निरन्तर मेरे में युक्त हुए योगी के लिये मैं सुलभ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता है||१४||

* वे परसिद्धि को प्राप्त हुए महात्मा जन मेरे को प्राप्त होकर दुःख के स्थानरूप क्षणभङ्गुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त
होते||१५||

* क्योंकि हे अर्जुन ! ब्रह्मलोक से लेकर सबलोक पुनरावर्ती स्वभाव वाले अर्थात् जिनको प्राप्त होकर पीछा संसार में आना पड़े ऐसे हैं, परंतु हे कुन्तीपुत्र ! मेरे को प्राप्त होकर उसका पुनर्जन्म नहीं होता है, क्योंकि मैं कालातीत हूँ और यह सब ब्रह्मादिकोंके लोक काल करके अवधि वाले होने से अनित्य हैं||१६||

*हे अर्जुन ! ब्रह्मा का जो एक दिन है, उसको हजार चौकड़ी युग तक अवधि वाला और रात्रि को सभी हजार चौकड़ी युग तक अवधि वालो जो पुरुष तत्त्व से जानते हैं, अर्थात् काल करके अवधि वाला में होने से ब्रह्मलोकको भी अनित्य जानते हैं, वे योगी-राजन काल के तत्त्व को जाननेवाले हैं||१७||

* इसलिये वे यह भी जानते हैं, कि संपूर्ण दृश्यमात्र भूतगण ब्रह्मा के दिन के प्रवेश काल में अव्यक्त से अर्थात् ब्रह्मा के
सूक्ष्म शरीर से उत्पन्न होते हैं और ब्रह्मा को रात्रि के प्रवेशकाल में उस अव्यक्त नामक ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में ही लय होते हैं||१८||

* वह ही यह भूत समु-दाय उत्पन्न हो-होकर, प्रकृति के वशमे हुआ रात्रि के प्रवेश काल में लय होता है और दिन के प्रवेश का फिर उत्पन्न होता है, हे अर्जुन  ! इस प्रकार एक सौ वर्ष पूर्ण होने से अपने लोक सहित ब्रह्मा शान्त हो जाता है||१९||

* परन्तु उस अव्य अति परे दूसरा अर्थात विलक्षण जो सनातन अच् भाव है, वह सच्चिदानन्दधन पूर्ण ब्रह्म परमात्सब भूतों के नष्ट होने पर भी नहीं नष्ट होता है||२०||

*जो वह अव्यक्त, अक्षर ऐसे कहा गया है, उसमें अक्षर नामक अव्यक्त भाव को परम गति कहते हैं जिस सनातन अव्यक्तभाव को प्राप्त होकर मन्य पीछे नहीं आते हैं वह मेरा परम धाम है||२१||

* हे पार्थ ! जिस परमात्मा के अन्तर्गत सर्वभूत हैं जिस सच्चिदानन्द घन परमात्मा से यह सब जय परिपूर्ण है वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष अन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है||२२||

* और हे अर्जुन ! जिस काल में शरीर त्याग और पीछा आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं, उसकर गये हुए योगी जन पीछा न आने वाली गति को काल को अर्थात मार्ग को कहूँगा||२३||

* उन दो प्रकार के मार्गो से जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि अभिमानी देवता है और दिन का अभिमानी देवता
तथा शुक्लपक्ष का अभिमानी देवता है, और उत्तरायण के छः महीनो का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गये हुए ब्रह्मवेत्ता अर्थात् परमेश्वर-ही उपासना से परमेश्वर को परोक्षभाव से जानने वाले योगी जन उपरोक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गये हुए ब्रम्ह को प्राप्त होते हैं||२४||

* जिस मार्ग में धूमाभिमानी खाता है और रात्रि अभिमानी देवता है तथा कृष्णपक्ष का अभिमानी देवता है, और दक्षिणायन-छः महीनों का अभिमानी देवता है; उस मार्ग में भरकर गया हुआ सकाम कर्मयोगी उपरोक्त देव-
नागों द्वारा क्रमसे ले गया हुआ चन्द्रमा को ज्योति को प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर
मीठा आता है||२५||

* क्योंकि जगत के यह दो प्रकार-शुक्ल और कृष्ण अर्थात देवयान और पित्यान मार्ग सनातन माने गये हैं, इनमें एक के द्वारा गया हुआ' पीछा न आने वाली परम गति को प्राप्त है और दूसरो द्वारा गया हुआ पीछा आता
अर्थात् जन्म-मृत्युको प्राप्त होता है||२६||

* इस प्रकार इन दोनों मार्गो को तत्त्व से जानता कोई भी योगी मोहित नहीं होता है अर्थात् निष्काम भाव से ही साधन करता है, कामना में नहीं फँसता । इस कारण हे अर्जुन ! तू काल में समत्व बुद्धिरूप योग से युक्त हो जाता निरन्तर मेरी प्राप्ति के लिये साधन करने वाला हो||२७||

* क्योंकि योगी पुरुष इस रहस्य को तत् जानकर वेदों के पढ़ने में तथा यज्ञ, तप और ददिकों के करने में जो पुण्यफल कहा है, उस सब निःसन्देह उल्लङ्घन कर जाता है और सनातन पर पद को प्राप्त होता है||२८||

* इति श्रीमद्भगवद्‌ गीता रूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में
"अक्षरब्रह्मयोग" नामक आठवाँ अध्याय||८||

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