श्रीमद भगवत गीता भाषा अध्याय १८ | Shrimad Bhagwat Geeta Bhasha Adhyay 18

Shrimad Bhagwat Geeta Bhasha Adhyay 18 Hindi

श्रीमद भगवत गीता सनातन धर्म का सबसे पवित्र और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह ग्रंथ महाभारत के भीष्म पर्व में वर्णित है और इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध भूमि में जो दिव्य उपदेश दिए, वही "भगवत गीता" कहलाता है। श्रीमद भगवत गीता अध्याय १८ को "मोक्षसंन्यासयोग" कहा जाता है।


Shrimad Bhagwat Geeta Bhasha Adhyay 18

अष्ट दस अध्याय-मोक्षसंन्यासयोग

* उसके उपरान्त अर्जुन बोला, हे महाबाहो ! हे अन्तर्यामिन् ! हे वासुदेव ! मैं संन्यास और त्याग के तत्त्व को पृथक्-पृथक् जानना चाहता हूँ||१||

* इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्री कृष्ण भगवान् बोले, हे अर्जुन ! कितने ही पण्डित जन तो काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास जानते हैं और कितने ही विचार कुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं||२||

* तथा कई एक विद्वान् ऐसे कहते हैं कि कर्म सभी दोष युक्त हैं, इसलिये त्यागने के योग्य हैं और दूसरे विद्वान् ऐसे कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप रूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं||३||

* परंतु हे अर्जुन ! उस त्याग के विषयमें तूं मेरे निश्चय को सुन, हे पुरुषश्रेष्ठ ! वह त्याग सात्त्विक, राजस और तामस ऐसे तीनों प्रकार का ही कहा गया है||४||

* तथा यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने के योग्य नहीं है, किंतु वह निःसंदेह करना कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप यह तीनों ही बुद्धिमान् पुरुषों को पवित्र करने वाले हैं||५||

* इसलिये हे पार्थ ! यह यज्ञ, दान और तपरूप कर्म तथा और भी सम्पूर्ण श्रेष्ठ कर्म, आसक्ति को और फलों को त्याग कर, अवश्य करने चाहिये, ऐसा मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है||६||

* और हे अर्जुन ! नियत कर्म का त्याग करना योग्य नहीं है, इस-लिये मोह से उसका त्याग करना तामस त्याग कहा
गया है||७||

* यदि कोई मनुष्य जो कुछ कर्म है, वह शब ही दुःख रूप है ऐसे समझ कर, शारीरिक क्लेश के भय से कर्मों का त्याग कर दे, तो वह पुरुष उस राज से त्याग को करके भी त्याग के फल को प्राप्त नहीं होता है; अर्थात् उसका वह त्याग करना व्यर्थ ही होता है||८||

* हे अर्जुन ! करना कर्तव्य है ऐसे समझकर ही जो शास्त्र विधि से नियत किया हुआ कर्तव्य कर्म आसक्ति को और फल को त्यागकर किया जाता है, वह हो सात्त्विक त्याग माना गया है अर्थात् कर्तव्य कर्मों को स्वरूप से न त्यागकर उनमें जो आसक्ति और फलका त्यागना है, वही सात्त्विक त्याग माना गया है||९||

* हे अर्जुन ! जो पुरुष अकल्याण कारक कर्म से तो द्वेष नहीं करता है और कल्याण कारक कर्म में आसक्त नहीं होता है वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त हुआ पुरुष संशयरहित, ज्ञानवान् और त्यागी है||१०||

* क्योंकि देहधारी पुरुष के द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्म त्यागे जाने को शक्य नहीं है, इससे जो पुरुष कर्मों के फल का त्यागी है वह ही त्यागी है ऐसे कहा जाता है||११||

* सकामी पुरुषों के कर्म का ही अच्छा, बुरा और मिला हुआ ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात् भी होता है
और त्यागी' पुरुषों के कर्मों का फल, किसी काल में भी नहीं होता, क्योंकि उनके द्वारा होने वाले कर्म वास्तव में कर्म नहीं हैं||१२||

*  हे महाबाहो ! सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के लिये अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों के सिद्ध होने में, यह पाँच हेतु सांख्य सिद्धान्त में कहे गये हैं, उनको तू मेरे से भली प्रकार जान||१३||

* हे अर्जुन ! इस विषय में आधार और कर्ता तथा न्यारे-न्यारे करण और नाना प्रकार की न्यारी-न्यारी चेष्टा एवं वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव कहा गया है||१४||

* क्योंकि मनुष्य मन, वाणी और शरीर से शास्त्र के अनुसार अथवा विपरीत भी जो कुछ कर्म आरम्भ करता है, उसके यह पाँचों ही कारण हैं||१५||

* परंतु ऐसा होने पर भी जो पुरुष अशुद्ध बुद्धि होने के कारण, उस विषय-में केवल शुद्ध स्वरूप आत्मा को कर्ता देखता है, वह मलिन बुद्धि वाला अज्ञानी यथार्थ नहीं देखता है||१६||

* हे अर्जुन ! जिस पुरुष के अन्तःकरण में मैं कर्ता हूँ, ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और सम्पूर्ण कर्मों में लिपायमान नहीं होता, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बंधता है||१७||

* हे भारत ! ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय यह तीनों तो कर्म के प्रेरक हैं अर्थात् इन तीनों के संयोग से तो कर्म में प्रवृत्त होने की इच्छा उत्पन्न होती है और कर्ता करण और क्रिया यह तीनों कर्म के संग्रह है अर्थात् इन तीनों के संयोग से कर्म बनता है||१८||

*उन सबमें ज्ञान और कर्म तथा कर्ता भी गणा के भेदसे सांख्यशास्त्र में तीन-तीन प्रकार से कहे गये हैं, उनको भी तू मेरे से भली प्रकार सुन||१९||

* हे अर्जुन ! जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक-पृथक् सब भूतों में, एक अविनाशी परमात्मभाव को विभाग रहित, समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तू सात्त्विक जान||२०||

* और जो ज्ञान अथर्थात जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण भूतों में, भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक भावों को न्यारा-न्यारा करके जानता है, उस ज्ञान को तू राजस जान||२१||

* और जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्णता के सदृश आसक्त है अर्थात्, जिस विपरीत ज्ञान के द्वारा मनुष्य एक क्षणभङ्गर नाशवान् शरीर को ही आत्मा मानकर, उसमें सर्वस्व की भाँति आशक्त रहता है तथा जो बिना युक्ति वाला, तत्त्व-अर्थ से रहित और तुच्छ है, वह ज्ञान तामस कहा गया है||२२||

* हे अर्जुन ! जो कर्म शास्त्र विधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित, फल को न चाहने वाले पुरुष द्वारा, बिना राग द्वेष से किया हुआ है वह कर्म तो सात्त्विक कहा जाता है||२३||

* और जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त है तथा फल न चाहने वाले और अहंकार युक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह राजस कहा गया है||२४||

* तथा जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचार कर, केवल अज्ञान से आरम्भ किया जाता है, वह कर्म तामस कहा जाता है||२५||

* हे अर्जुन ! जो कर्ता आसक्ति से रहित और अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त एवं कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष-शोकादि विकारों से रहित है, वह कर्ता तो सात्त्विक कहा जाता है||२६||

* जो आसक्ति से युक्त, कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला अशुद्धाचारी और हर्ष, शोकसे लिपायमान है, वह कर्ता राजस कहा गया है||२७||

* जो विक्षेपयुक्त चित्तवाला, शिक्षा से रहित, घमण्डी, धूर्त और दूसरे की आजीविका का नाशक एवं शोक करने के स्वभाव वाला, आलसी और दीर्घ-मुवी है, वह कर्ता तामस कहा जाता है||२८||

* हे- अर्जुन ! तूं बुद्धि का और धारण शक्ति का भी गुणों के कारण तीन प्रकार का भेद सम्पूर्णता से विभागपूर्वक
मेरे से कहा हुआ सुन||२९||

* हे पार्थ ! प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को एवं भय और अभय को तथा बन्धन और मोक्ष को जो बुद्धि तत्त्व से जानती है, वह बुद्धि तो सात्त्विकी है||३०||

* हे पार्थ ! जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म- को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता है वह बुद्धि राजसी है||३१||

* और हे अर्जुन ! जो तमोगुण से आवृत हुई बुद्धि अधर्म को धर्म ऐसा मानती है, तथा और भी सम्पूर्ण अर्थो को विपरीत ही मानती है, वह बुद्धि तामसी है||३२||

* हे पार्थ ! ध्यान योग के द्वारा जिस अव्यभिचारिणी धारणा से मनुष्य मन, प्राण और इन्द्रियो को क्रियाओं को धारण करता है वह धारणा तो सात्त्विकी है||३३||

* और हे पृथापुत्र अर्जुन ! फल की इच्छावाला मनुष्य अति आसक्तिसे जिस धारणा के द्वारा धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है, वह धारणा राजसी है||३४||

* तथा हे पार्थ ! दृष्टबुद्धि-वाला मनुष्य जिस धारणा के द्वारा निद्रा, भय, चिन्ता और दुःख को एवं उन्मत्तता को भी नहीं
छोड़ता है अर्थात् धारण किये रहता है, वह धारणा तामसी है||३५||

* हे अर्जुन ! अब सुख भी तूं तीन प्रकार का मेरे से सुन; हे भरतश्रेष्ठ ! जिस सुख में साधक पुरुष भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और दुःखों के अन्त को प्राप्त होता है||३६||

* वह सुख प्रथम साधन के आरम्भ काल में यद्यपि विष के सदृश भासता है' परंतु परिणाम में अमृत के तुल्य है, इसलिये जो भगवत्-विषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न हुआ सुख है वह सात्त्विक कहा गया है||३७||

* जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है वह यद्यपि भोग काल में अमृत के सदृश भासता है, परंतु परिणाम में विष के सहश है, इसलिये वह सुख राजस कहा गया है||३८||

* तथा जो सुख भोग काल में और परिणाम में भी आत्मा को मोहने वाला है वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न हुआ सुख तामस कहा गया है||३९||

* और हे अर्जुन ! पृथ्वी में या स्वर्ग में अथवा देवताओं में ऐसा वह कोई भी प्राणी नहीं है कि जो इन प्रकृति से उत्पन्न हुए, तीनों गुणों से रहित हो, क्योंकि यावन्मात्त्र सर्व जगत्, त्रिगुणमयी माया का ही विकार है||४०||

* इसलिये हे परंतप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों-के तथा शूद्रों के भी कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए गुणों करके विभक्त किये गये हैं अर्थात् पूर्वकृत कर्मों के संस्कार रूप स्वभाव से उत्पन्न हुए गुणों के अनुसार विभक्त किये गये हैं||४१||

* उनमें अन्तःकरण का निग्रह, इन्द्रियों का दमन, बाहर-भीतर को शुद्धि, धर्म के लिये कष्ट सहन करना और क्षमा भाव एवं मन, इन्द्रिय और शरीर की सरलता, आस्तिक बुद्धि, शास्त्रविषयक ज्ञान और परमात्मतत्त्व का अनुभव
और परलोक का नाशक होने से भी, ये तो ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं||४२||

* शूरबीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में भी न भागने-का स्वभाव एवं दान और स्वामी भाव अर्थात्, निःस्वार्थ भाव से सबका हित सोचकर, शास्त्राज्ञानुसार शासन द्वारा, प्रेम के सहित पुत्रतुल्य प्रजा को पालन करने का भाव-ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं||४३||

* खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार - ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं और सब वर्णों की सेवा करना-यह शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है||४४||

* एवं इस अपने-अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य, भगवत्प्राप्त रूप परम सिद्धि-को प्राप्त होता है; परंतु जिस प्रकार से अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू मेरेसे सुन||४५||

* हे अर्जुन ! जिस परमात्मा से सर्वभूतों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सर्वजगत् व्याह है उस परमेश्वर को अपने स्वाभाविक कर्म द्वारा पूज कर मनुष्य परम-सिद्धि को प्राप्त होता है||४६||

* इसलिये अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से, गुण रहित भी अपना धर्मश्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्म रूप कर्म को करता हुआ मनुष्य, पाप को नहीं प्राप्त होता||४७||

* अतएव हे कुन्तीपुत्र ! दोषयुक्त भी स्वाभाविक कर्म को नहीं त्यागना चाहिये; क्योंकि धुएँ से अग्नि के सदृश सब ही कर्म किसी न किसी दोष से आवृत हैं||४८||

* हे अर्जुन ! सर्वत्र आसक्ति रहित बुद्धिवाला, स्पृहा रहित और जीते हुए अन्तःकरण वाला पुरुष सांख्य योगके द्वारा भी परम नैष्कर्म्य सिद्धिको प्राप्त होता है अर्थात् क्रिया-रहित शुद्ध सच्चिदानन्दधन परमात्मा की प्राप्ति रूप परम सिद्धि को प्राप्त होता है||४९||

* इसलिये हे कुन्तीपुत्र ! अन्तःकरण को शुद्धि रूप सिद्धि को प्राप्त हुआ पुरुष, जैसे सांख्य योग के द्वारा, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त होता है तथा जो तत्त्वज्ञान की परानिष्ठा है, उसको भी तू मेरे से संक्षेपसे जान||५०||

* हे अर्जुन ! विशुद्ध बुद्धि से युक्त एकान्त और शुद्ध देश का सेवन करने वाला तथा मिताहारी, "जीते हुए मन, वाणी, शरीर वाला और दृढ़ वैराग्य को भली प्रकार प्राप्त हुआ पुरुष निरन्तर ध्यानयोग के परायण हुआ सात्त्विक धारणा से, अन्तःकरण को वश में करके तथा शब्दादिक विषयों को त्यागकर और राग द्वेषों को नष्ट करके||५१,५२||

* तथा अहंकार, बल, घमण्ड, काम, क्रोध और संग्रह को त्याग-कर ममता रहित और शान्त अन्तःकरण हुआ, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकी भाव होने के लिये योग्य होता है||५३||

* फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित हुआ, प्रसन्न चित्तवाला पुरुष न तो किसी वस्तु के लिये शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है एवं सब भूतों में समभाव हुआ', मेरी पराभक्ति को प्राप्त होता है||५४||

* उस पराभक्ति के द्वारा मेरे को तत्त्व से भली प्रकार जानता है कि मैं जो और जिस प्रभाव वाला हूँ तथा उस भक्ति से मेरे को तत्त्व से जानकर, तत्काल ही मेरेमें प्रवेश हो जाता है अर्थात् अनन्य भाव से मेरे को प्राप्त हो जाता है । फिर उसकी दृष्टि में मुझ वासुदेव के सिवाय और कुछ भी नहीं रहता||५५||

* मेरे परायण हुआ निष्काम कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपाले सनतिन अविनाशी परम पद को प्राप्त हो जाता है||५६||

* इसलिये हे अर्जुन ! तू सब कर्मों को मन से मेरे में अर्पण करके, मेरे परायण हुआ, समत्व बुद्धि-रूप निष्काम कर्म योग को अवलम्बन करके, निरन्तर मेरे में चित्त वाला हो||५७||

* इस प्रकार तू मेरे में निरन्तर मन वाला हुआ, मेरी कृपा से जन्म, मृत्यु आदि सब संकटों को अनायास ही तर जायेगा
और यदि अहंकार के कारण, मेरे वचनों को नहीं सुनेगा तो नष्ट हो जायगा अर्थात् परमार्थ से भ्रष्ट हो जायगा||५८||

* जो त अहकार को अवलम्बन करके ऐसे मानता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो यह तेरा निश्चय मिथ्या है, क्योंकि क्षत्रिय पन का स्वभाव तेरेको जबरदस्ती युद्ध में लगा देगा||५९||

*  हे अर्जुन ! जिस कर्म को तूं मोह से नहीं करना बाहता है, उसको भी अपने पूर्व कृत स्वाभाविक कर्म से बंधा हुआ परवश होकर करेगा||६०||

* क्योंकि हे अर्जुन ! शरीर रूप यन्त्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को, अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमाता हुआ सब भूत-प्राणियों के हृदय में स्थित है||६१||

* इसलिये हे भारत ! सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो, उस परमात्मा की कृपा से ही परम शान्ति-को और सनातन परमधाम को प्राप्त होगा||६२||

* इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय-ज्ञान मैंने तेरे लिये कहा है। इस रहस्य युक्त ज्ञान-को सम्पूर्णता से अच्छी प्रकार विचार के, फिर तूं जैसे चाहता है वैसे ही कर अर्थात् जैसी तेरी इच्छा हो वैसे ही कर||६३||

* इतना कहने पर भी अर्जुन का कोई उत्तर नहीं मिलने के कारण, श्रीकृष्ण भगवान् फिर बोले कि हे अर्जुन ! सम्पूर्ण गोपनीयों से भी अति गोपनीय, मेरे परम रहस्य युक्त वचन को तूं फिर भी सुन; क्योंकि तू मेरा अतिशय प्रिय है, इससे यह परम हितकारक वचन मैं तेरे लिये कहूँगा||६४||

* हे अर्जुन ! तू केवल मुझ सच्चिदानन्दधन वासुदेव परमात्मा में ही अनन्य प्रेम से नित्य-निरन्तर अचल मन वाला हो और मुझ परमेश्वर को ही अति-शय श्रद्धा भक्ति सहित, निष्काम भाव से नाम, गुण और प्रभाव के श्रवण, कीर्तन, मनन और पठन-पाठन द्वारा निरन्तर भजने वाला हो तथा मेरा (शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म और किरीट, कुण्डल आदि
भूषणोसे युक्त, पीताम्बर, वनमाला और कौस्तुभ-मणिधारी विष्णुका) मन, वाणी और शरीर के द्वारा सर्वस्व अर्पण करके अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से विह्वलतापूर्वक पूजन करने वाला हो और मुझ सर्वशक्तिमान्, विभूति, बल, ऐश्वर्य, माधुर्य, गम्भीरता, उदारता, वात्सल्य और सुहृदता आदि गुणोंसे सम्पन्न सबके आश्रयरूप वासुदेव को विनय भावपूर्वक भक्तिसहित साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणामकर, ऐसा करनेसे तू मेरेको ही प्राप्त होगा, यह मैं तेरे लिये सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तँ मेरा अत्यन्त प्रिय सखा है||६५||

* इसलिये सर्व धर्मो को अर्थात्, सम्पूर्ण कर्मों के आश्रय को त्याग कर केवल एक मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्मा की ही अनन्य-शरण को प्राप्त हो, मैं तेरे को सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा, तूं शोक मत कर||६६||

* हे अर्जुन ! इस प्रकार, तेरे हित के लिये कहे हुए इस गीता रूप परम रहस्य को, किसी काल में भी न तो तप रहित मनुष्य के प्रति कहना चाहिये और न भक्ति रहित के प्रति तथा न बिना सुनने की इच्छा-बाले के ही प्रति कहना चाहिये एवं जो मेरी निन्दा करता है उसके प्रति भी नहीं कहना चाहिये, परंतु जिसमें यह सब दोष नहीं हों, ऐसे भक्तों के प्रति प्रेमपूर्वक उत्साहके सहित कहना चाहिये||६७||

* श्योंकि जो पुरुष मेरे में परम प्रेम करके इस परम रहस्य युक्त गीता शास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा अर्थात्
निष्काम भाव से प्रेमपूर्वक मेरे भक्तों को पढ़ावेगा या अर्थ की व्याख्या द्वारा इसका प्रचार करेगा वह निःसंदेह मेरेको ही प्राप्त होगा||६८||

* और न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा अत्यन्त
प्यारा पृथ्वी में दूसरा कोई होवेगा||६९||

* तथा हे अर्जुन ! जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद रूप गीताशास्त्र को पढ़ेगा अर्थात् नित्य पाठ करेगा उसके द्वारा मैं ज्ञान यज्ञ से पूजित होऊँगा, ऐसा मेरा मत है||७०||

* जो पुरुष श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित हुआ, इस गीताशास्त्र का श्रवण मात्र भी करेगा वह भी पापों से मुक्त हुआ, उत्तम कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होवेगा||७१||

* इस प्रकार गीता का माहात्म्य कहकर भगवान्,,श्री,कृष्ण,चन्द्र आनन्दकन्द,ने अर्जुन,से पूछा, हे पार्थ !,क्या यह मेरा वचन तूने एकाग्रचित्त,से श्रवण किया?,और हे धनंजय ! क्या तेरा अज्ञान,से उत्पन्न हुआ,मोह नष्ट हुआ ?||७२||

* इस प्रकार भगवान्‌ के पूछने-पर अर्जुन बोला, हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मृति प्राप्त हुई है, इसलिये मैं संशयरहित हुआ स्थित हूँ और आपकी आज्ञा पालन करूँगा||७३||

* उसके उपरान्त संजय बोला, हे राजन् ! इस प्रकार मैंने श्रीवासुदेव के और माहत्मा अर्जुन के, इस अद्भुत रहस्य युक्त और रोमाञ्च कारक संवाद को सुना||७४||

* कैसे कि श्री व्यास जीकी  कृपासे दिव्य दृष्टिद्वारा मैने इस परम रहस्य युक्त गोपनीय योग को साक्षात् कहते हुए
स्वयम् योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान् से सुना है||७५||

* इसलिये हे राजन् ! श्रीकृष्ण भगवान् और अर्जुन को इस रहस्ययुक्त कल्याण कारक और अद्भुत संवाद-को पुनः-पुनः स्मरण करके मैं बारम्बार हषित होता हूँ||७६||

* तथा हे राजन् ! श्री हरि के उस अति अद्भुत रूप को भी पुनः-पुनः स्मरण करके मेरे चित्त- में महान् आश्चर्य होता है और मैं बारम्बार हषित होता है||७७||

* हे राजन् ! विशेष क्या कहें, जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान् हैं और जहाँ गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है ऐसा मेरा मत है||७८||

* श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र-विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में "मोक्षसंन्यासयोग" नामक अठारहवाँ अध्याय||१८||

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