श्रीमद भगवत गीता भाषा अध्याय १० | Shrimad Bhagwat Geeta Bhasha Adhyay 10
Shrimad Bhagwat Geeta Bhasha Adhyay 9 Hindi
श्रीमद भगवत गीता सनातन धर्म का सबसे पवित्र और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह ग्रंथ महाभारत के भीष्म पर्व में वर्णित है और इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध भूमि में जो दिव्य उपदेश दिए, वही "भगवत गीता" कहलाता है। श्रीमद भगवत गीता अध्याय 10 को "विभूति योग" कहा जाता है।दशम अध्याय - विभूति योग
* भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र जी बोले, हे महाबाहो !- फिर भी मेरे परम रहस्य और प्रभाव युक्त वचन श्रवण कर जो कि मैं तुझ अतिशय प्रेम रखनेवाले-के लिये हित की इच्छा से कहूँगा||१||* हे अर्जुन ! मेरी उत्पत्ति को अर्थात् विभूति सहित लीला से प्रकट होने को न देवता लोग जानते हैं और न मषिजन
ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकारसे देवताओं का और मषियों का भी आदि कारण हूँ||२||
* जो मेरे-को अजन्मा अर्थात् वास्तव में जन्मरहित और अनादि तथा लोकों का महान् ईश्वर तत्त्व से जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान् पुरुष सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है||३||
* हे अर्जुन ! निश्चय करने की शक्ति एवं तत्त्व ज्ञान और मूढ़ता, क्षमा, सत्य तथा इन्द्रियों का वश में करना और मन का निग्रह तथा सुख-दुःख, उत्पत्ति और प्रलय एवं भय और अभय भी||४||
* तथा हिंसा, समता, संतोष, तपा, दान कीर्ति और अपकीर्ति ऐसे यह प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मेरेसे ही होते हैं||५||
* हे अर्जुन ! सात तो महर्षि जन और चार उनसे भी पूर्व में होने वाले सनकादि तथा स्वायम्भुव आदि चौदह मनु, यह
मेरे में भाव वाले सब-के-सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं, कि जिनकी संसारमें यह सम्पूर्ण प्रजा है||६||
* जो पुरुष इस मेरी परमैश्वर्य रूप विभूति को और योग शक्ति को तत्त्व से जानता है, वह पुरुष निश्चल ध्यान योग द्वारा मेरे में ही एकी भाव से स्थित होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है||७||
* मैं वासुदेव ही सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्ति का कारण हूँ और मेरे से ही सब जगत् चेष्टा करता है, इस प्रकार तत्त्व से समझकर श्रद्धा और भक्ति से युक्त हुए बुद्धिमान् भक्तजन मुझ परमेश्वर को ही निरन्तर भजते हैं||८||
* वे निरन्तर मेरे में मन लगाने वाले और मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने-वाले भक्त जन सदा ही मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जनाते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरन्तर रमण करते हैं||९||
* उन निरन्तर मेरे ध्यान में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को, मैं वह तत्त्व ज्ञानस्य योग देता हूँ, कि जिससे वे मेरे को ही प्राप्त होते हैं||१०||
* हे अर्जुन ! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिये ही, मैं स्वयं उनके अन्तःकरण में एकीभाव से स्थित हुआ, अज्ञान से उत्पन्न हुए अन्धकार को प्रकाश मय तत्त्वज्ञान रूप दीपक द्वारा नष्ट करता हूँ||११||
*इस प्रकार भगवान्के वचनों को सुनकर अर्जुन बोला, हे भगवान् ! आप परम ब्रह्म और परम धाम एवं परम पवित्र हैं, क्योंकि आपको सब ऋषिजन सनातन दिव्य पुरुष एवं देवोंका भी आदिदेव अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं, वैसे ही देवाण नारद तथा असित और देवलऋषि तथा महाप व्यास और स्वयम् आप भी मेरे प्रति कहते हैं||१२-१३||
* हे केशव ! जो कुछ भी मेरे प्रति आप कर हैं, इस समस्त को मैं सत्य मानता हूँ, हे भगवन आपके लीला मय स्वरूप को न दानव जानते हैं और न देवता ही जानते हैं||१४||
* हे भूतों को उत्पन्न करने वाले ! हे भूतों के ईश्वर ! हे देवोंके देव ! हे जगत्के स्वामी ! हे पुरुषोत्तम ! आप स्वयम् ही अपने से आपको जानते हैं||१५||
* इसलिये हे भगवन् ! आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियों को सम्पूर्णता से करने के लिये योग्य हैं, कि जिन विभूतियों के द्वारा इन सब लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं||१६||
* हे योगेश्वर ! मैं किस प्रकार निरन्तर चिन्तन करता हुआ आपको जानूँ और हे भगवन् ! आप किन-किन भावों में मेरे द्वारा चिन्तन करने योग्य हैं||१७||
* हे जनार्दन ! अपनी योग शक्ति को और परमैश्वर्य रूप विभूति को फिर भी विस्तारपूर्वक कहिये; क्योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती है अर्थात् सुननेकी उत्कण्ठा बनी ही रहती है||१८||
* इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण भगवान् बोले- हे कुरुश्रेष्ठ ! अब मैं तेरे लिये अपनी दिव्य विभूतियों को प्रधानता से कहूँगा, क्योंकि मेरे विस्तार का अन्त नहीं है||१९||
* हे अर्जुन ! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ||२०||
* हे अर्जुन ! मैं अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु अर्थात् वामन अवतार और ज्योंतियों में किरणों वाला सूर्य हूँ तथा मैं उन्चास वायु देवताओं में मरीचि नामक बायुदेवता और नक्षत्रोंमें नक्षत्रों का अधिपति चन्द्रमा हूँ||२१||
* मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इन्द्र हूँ और इन्द्रियोंमें मन हूँ, भूतप्राणियों में चेतनता अर्थात् ज्ञानशक्ति हूँ||२२||
* मैं एकादश रुद्रों में शंकर हूँ और यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूँ और मैं आठ वसुओंमें अग्नि हूँ तथा शिखर वाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूँ||२३||
* पुरोहितों में मुख्य अर्थात् देवताओं का पुरोहित बृहस्पति मेरे को जान तथा हे पार्थ ! मैं सेनापतियों में स्वामि कार्तिक और जला-शयों में समुद्र हूँ||२४||
* हे अर्जुन ! मैं ऋषियों में भृगु और वचनों में एक अक्षर अर्थात् ओंकार हूँ तथा सब प्रकारके यज्ञों में जपयज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालय पहाड़ हूँ||२५||
* सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष और देव ऋषियों में नारद मुनि तथा गन्धवों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिलमुनि हूँ||२६||
* हे अर्जुन तू घोड़ों में अमृत से उत्पन्न होने वाला उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा और हाथियों में ऐरावत नामक हाथी तथा मनुष्यों में राजा मेरे को ही जान||२७||
* है अर्जुन ! मैं शस्त्रों में वजन और गौओं में कामधेनु हूँ और शास्त्रोक्त रीति से संतान की उत्पत्तिका हेतु
कामदेव हूँ, सर्पों में सर्पराज वासुकि हूँ||२८||
* मैं नागों में शेषनाग और जलचरों में उनका अधिपति वरुण देवता हूँ और पितरों में अर्य मानामक पित्वेश्वर
तथा शासन करने वालों में यमराज मैं हूँ||२९||
* हे अर्जुन ! मैं दैत्यों में प्रह्लाद और गिनती करने-वालों में समय हूँ तथा पशुओं में मृगराज सिंह और पक्षियों में गरुड़ मैं हूँ||३०||
* मैं पवित्र करने वालों में वायु और शस्त्रधारियों में राम हूँ तथा मछलियों में मगरमच्छ और नदियों में श्री भागीरथी गङ्गा हूँ||३१||
* हे अर्जुन ! सृष्टियों का आदि, अन्त और मध्य भी मैं ही हूँ तथा मैं विद्याओं में अध्यात्मविद्या अर्थात् ब्रह्मविद्या एवं परस्परमें विवाद करने वालों-में तत्त्वनिर्णय के लिये किया जानेवाला वाद हूँ३२||
* मैं अक्षरों में ओमकार और समासों में द्वन्द्व नामक समास हूँ तथा अक्षय काल अर्थात काल का भी महाकाल और विराट्स्वरूप सबका धारण-पोषण करने वाला भी मैं ही हूँ||३३||
* हे अर्जुन ! मैं सबका नाश करने-वाला मृत्यु और आगे होने वालो को उत्पत्ति का कारण हैं तथा स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ||३४||
* तथा मैं गायन करने योग्य श्रुतियों में बृहत्साम और छन्दों में गायत्री छन्द तथा महीनों में मार्गशीर्ष का महीना और
ऋतुओंमें वसन्त ऋतु मैं हूँ||३५||
* हे अर्जुन ! में छल करने वालों में जुआ और प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव हूँ तथा मैं जीतने वालों का विजय हूँ निश्चय करने वालों का निश्चय एवं सात्त्विक पुरुषों का सात्त्विक भाव हूँ||३६||
* और वृष्णिवंशियों में वासुदेव अर्थात् मै स्वयम् तुम्हारा सखा और पाण्डवों-में धनंजय अर्थात् तू एवं मुनियों में वेदव्यास और कवियों में शुक्राचार्य कवि भी मैं ही हूँ||३७||
* और दमन करने वालों का दण्ड अर्थात दमन करने को शक्ति हूँ, जीतने की इच्छा वालों की नीति हूँ और
गोपनीयों में अर्थात् गुप्त रखने योग्य भावों में मौन हूँ तथा ज्ञानवानों का तत्त्व ज्ञान मैं ही हूँ||३८||
* और हे अर्जुन ! जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है, वह भी मैं ही हूँ, क्योंकि ऐसा वह चर और अचर कोई भी भूत नहीं है, कि जो मेरे से रहित होवे, इस-लिये सब कुछ मेरा ही स्वरूप है||३९||
* हे परंतप ! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है, यह तो मैंने अपनी विभूतियों का विस्तार तेरे लिये एक देश से
अर्थात् संक्षेप से कहा है||४०||
* इसलिये हे अर्जुन ! जो-जो भी विभूति युक्त अर्थात् ऐश्वर्य युक्त एवं कान्तियुक्त और शक्ति युक्त वस्तु है, उस-उसको तू मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुई जान||४१||
* अथवा हे अर्जुन ! इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रयोजन है, मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपनी योग माया के एक अंशमात्र-से धारण करके स्थित हूँ, इसलिये मेरेको हो तत्त्व-से जानना चाहिये||४२||
* इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में
"विभूतियोग" नामक दसवाँ अध्याय||१०||